स्वतंत्रता आन्दोलन में संघ का सहभाग
   

कुछ समय पूर्व एक पत्रकार मिलने आये. बात बातमें उन्होंने पूछा स्वतंत्रता आन्दोलनमें संघका सहभाग क्या था. शायद वे भी संघके खिलाफ चलने वाले असत्य प्रचारके शिकार थे. मैंने उन्हें प्रतिप्रश्न किया कि आप स्वतंत्रता आन्दोलन किसको मानते है. वे इसके लिए तैयार नहीं थे. कुछ बोल ही ना सके. फिर धीरेसे शंकित स्वरमें उन्होंने कहा वहीँ जो महात्मा गाँधीजीने किया था. मैंने पूछा तो गांधीजीके पहले क्या स्वतंत्रताके लिए कुछ नहीं हुआ था? क्या लाल – बाल – पाल त्रिमूर्तिका कोई योगदान नहीं था? क्या क्रन्तिकारी आन्दोलन, सुभाषबाबुकी कोई भूमिका स्वतंत्रता आन्दोलनमें नहीं थी? वे चुप थे. फिर मैंने पूछा कि गांधीजीके नेतृत्वमें कितने सत्याग्रह हुए. वे अनजान थे. मैंने कहा कि तीन हुए. १९२१, १९३० और १९४२. उन्हें जानकारी नहीं थी. मैंने कहा संघ संस्थापाक डॉ. हेडगेवारजीने ( उनकी मृत्यु १९४० में हुई थी.) संघ स्थापना से पहले(१९२१) और बादके(१९३०)सत्याग्रह में भाग लिया था और उन्हें कारावास भी सहना पड़ा.

यह घटना इसलिए कही कि एक योजनाबद्ध तरीकेसे झूठा इतिहास बतानेका एक प्रयास चल रहा है. भारतके लोगोंको ऐसा माननेके लिये बाध्य किया जा रहा है कि, स्वतंत्रता केवल गांधीजीके, कोंग्रेसके और १९४२ के सत्याग्रहके कारणही मिली है. और किसीने कुछ नहीं किया. यह बात सत्यसे बहुत परे है. हाँ. गांधीजीने सत्याग्रहके माध्यमसे, चरखा और खादीके माध्यमसे सर्व सामान्य जनताको स्वतंत्रता आन्दोलनमें सहभागी होनेका एक सरल एवं सहज तरीका, साधन उपलब्ध कराया. और लाखोंकी संख्यामें लोग स्वतंत्रता आन्दोलनसे जुड़ सके, यह बात सत्य है. परन्तु सारा श्रेय एकही व्यक्ति, आन्दोलन या पार्टीको देना यह सत्यसे खिलवाड़ है, अन्य सभीके प्रयासों का अपमान है.

अब संघकी बात करनी है तो डॉ. हेडगेवारसे ही करनी पड़ेगी. केशवका (हेडगेवार) जन्म १८८९ का है. नागपुरमें स्वतंत्रता आन्दोलन की चर्चा(हवा) १९०४-१९०५ से शुरू हुई. उसके पहले अंग्रेजोंके खिलाफ स्वतंत्रता आन्दोलनका बहुत वातावरण नहीं था. फिर भी १८९७ में रानी विक्टोरियाके राज्यारोहणके हीरक महोत्सवके निमित्त स्कूलमें बांटी गयी मिठाई ८ सालके शिशु केशवने ना खा कर कूड़ेमें फेंक दी. यह था उसका अंग्रेजोंके गुलाम होनेका गुस्सा और चीढ़. १९०७ में रिस्ले सर्क्युलर नामसे ‘वन्दे मातरम’के सार्वजनिक उद्घोष पर पाबन्दीका जो अन्यायपूर्ण आदेश घोषित हुआ था उसके विरोधमें केशवने अपने नील सिटी विद्यालयमें निरीक्षकके सामने सभी विद्यार्थी द्वारा ‘वन्दे मातरम’ उद्घोष करवा कर विद्यालयके प्रशासनका रोष और उसकी सजाके नाते विद्यालयसे निष्कासन भी मोल लिया था. डॉक्टरी पढनेके लिए मुम्बईमें सुविधा होनेके बावजूद क्रांतिकारियोंका केंद्र होनेके नाते उन्होंने कलकत्ताको पसंद किया. वहां वे क्रातिकारियोंकी शीर्षस्थ संस्था ‘अनुशीलन समिति’के विश्वासपात्र, अंतर्गत सदस्य बने थे.

१९१६ में डॉक्टर बनकर वे नागपुर वापिस आये. उस समय स्वतंत्रता आन्दोलनके सभी मूर्धन्य नेता विवाहित थे, गृहस्थ थे. अपनी गृहस्थीके लिए आवश्यक अर्थार्जनका हरेक का कोई साधन था. इसके साथ साथ वे स्वतंत्रता आन्दोलनमें अपना बहुमूल्य योगदान दे रहे थे. डॉक्टर हेडगेवार भी ऐसाही सोच सकते थे. घरकी परिस्थिति भी ऐसीही थी. परन्तु उन्होंने डाक्टरी एवं विवाह ना करने का निर्णय लिया. उनके मनमें स्वतंत्रता प्राप्तिकी इतनी तीव्रता और ‘अर्जेंसी’ थी कि उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवनका कोई विचार ना करते हुए अपनी सारी शक्ति, समय और क्षमता राष्ट्रके लिए अर्पित करते हुए स्वतंत्रताके लिए चलने वाले हर प्रकारके आन्दोलनसे अपने आपको जोड़ दिया.

लोकमान्य तिलक पर उनकी अनन्य श्रद्धा थी. तिलकजी के नेतृत्वमें नागपुरमें संपन्न होने जा रहे १९२० के कोंग्रेस अधिवेशनकी सारी व्यवस्थाओंकी जिम्मेदारी डॉ. हर्डीकर और डॉ. हेडगेवारको दी गयी थी और उसके लिए उन्होंने १२०० स्वयंसेवकोंकी भर्ती करवाई थी. उस समय डॉ. हेडगेवार कोंग्रेसकी नागपुर शहर इकाईके संयुक्त सचिव थे. उस अधिवेशनमें पारित करने हेतु कोंग्रेसकी प्रस्ताव समितिके सामने डॉ. हेडगेवारजीने ऐसे प्रस्तावका सुझाव रखा था कि कोंग्रेसका उद्देश्य भारतको पूर्ण स्वतंत्र कर भारतीय गणतंत्रकी स्थापना करना और विश्वको पूंजीवादके चंगुलसे मुक्त करना यह होना चाहिए. सम्पूर्ण स्वातंत्र्यका उनका सुझाव कोंग्रेसने ९ वर्ष बाद १९२९ के लाहोर अधिवेशनमें स्वीकृत किया. इससे आनंदित होकर डॉक्टरजीने संघकी सभी शाखाओंमें( संघ कार्य १९२५ में प्रारंभ हो चुका था.) २६ जनवरी १९३० को कोंग्रेसका अभिनंदन करनेकी सूचना दी थी. नागपुर तिलकवादियोंका गढ़ था. १ अगस्त, १९२० को लोकमान्य तिलकके देहावसानके कारण नागपुके सभी तिलकवादियों में निराशा छा गई. बादमें महात्मा गाँधीजीके नेतृत्वमें कोंग्रेसका स्वतंत्रता आन्दोलन चला.

असहयोग आन्दोलनके समय, १९२१ में, साम्राज्यवाद विरोधी आन्दोलनका सामाजिक आधार व्यापक करनेकी दृष्टीसे, अंग्रेजों द्वारा तुर्कस्तानमें खिलाफतको निरस्त करनेसे आहत मुस्लिम मनको अंग्रेजोंके खिलाफ स्वतंत्रता आन्दोलनके साथ जोड़नेके उद्देश्यसे महात्मा गाँधीजीने खिलाफतका समर्थन किया. इससे कोंग्रेसके अनेक नेता तथा राष्टवादी मुस्लिमोंको आपत्ति थी. इसलिए, तिलकवादियोंका गढ़ होनेके कारण नागपुरमें असहयोग आन्दोलन बहुत प्रभावी नहीं रहा. परन्तु डॉ. हेडगेवार, डॉ. चोलकर, समिमुल्लाखन आदिने यह परिवेश बदल दिया. खिलाफत को राष्ट्रिय आन्दोलनसे जोड़ने पर आपत्ति होते हुए भी वह सार्वजनिक नहीं की.

साम्राज्यवादका विरोध इसी मापदंडके आधार पर उन्होने तन मन धनसे आन्दोलन में सहभाग लिया. व्यक्तिगत सामाजिक संबंधोंसे अलग हटकर उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रिय परिस्थितिका विश्लेषण किया. आसपासके राजनितिक वातावरण एवं दबंग तिलकवादियोंके दृष्टिकोणकी चिंता नहीं की. उन पर चले राजद्रोहके मुकदमेमें उन्हें एक वर्षका कारावास सहना पड़ा. वे १९ अगस्त १९२१ से ११ जुलाई १९२२ तक कारावासमें रहनेके बाद १२ जुलाईको उनके सम्मानमें एक सार्वजनिक सभाका आयोजन नागपुरमें हुआ था. उसे संबोधित करनेके लिए कोंग्रेसके अन्य नेता हाकिम अजमल खान, पंडित मोतीलाल नेहरु, श्री राजगोपालाचारी, डॉ. अंसारी, विठ्ठलभाई पटेल आदि उपस्थित थे.

स्वतंत्रता प्राप्तिका महत्व तथा प्राथमिकताको समझते हुए भी एक प्रश्न हेडगेवारजीको सतत सताता रहता था कि, ७००० मीलसे दूर व्यापार करने आये मुठ्ठीभर अंग्रेज, इस विशाल खंडप्राय देश पर राज कैसे करने लगे? जरुर हममें कुछ दोष होंगे. उनके ध्यानमें आया कि हमारा समाज आत्मविस्मृत, जाती – प्रान्त - भाषा - उपासना पद्धति आदि अनेक गुटोंमें बंटा हुआ, असंगठित और अनेक कुरीतियोसे भरा पड़ा हुआ है जिसका लाभ लेकर अंग्रेज यहाँ राज कर सके. स्वतंत्रता मिलनेके बाद भी समाज ऐसाही रहा तो कल फिर इतिहास दोहराया जायेगा. वे कहते थे कि ‘नागनाथ जायेगा तो सांपनाथ आयेगा’. इसलिए इस अपने राष्ट्रिय समाजको आत्मगौरव युक्त, जागृत, संगठित करते हुए सभी दोष, कुरीतियोंसे मुक्त करना और राष्ट्रिय गुणोंसे युक्त करना अधिक मूलभूत आवश्यक कार्य है और यह कार्य राजनीतिसे अलग, प्रसिद्धिसे दूर, मौन रहकर सातत्यपूर्वक करनेका है ऐसा उन्हें प्रतीत हुआ. उस हेतु १९२५ में उन्होंने राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघकी स्थापना की. संघ स्थापनाके पश्चात् भी सभी राजनैतिक या सामाजिक नेता, आन्दोलन एवं गतिविधिके साथ उनके समान नजदीकीके और आत्मीय सम्बन्ध थे.

१९३० में गाँधीजीके आवाहनपर सविनय अवज्ञा आन्दोलन ६ अप्रैलको दांडी(गुजरात)में नमक सत्याग्रह के नाम से शुरू हुआ. नवम्बर १९२९ में ही संघचालकोंकी त्रिदिवसीय बैठकमें इस आन्दोलनको बिनाशर्त समर्थन करनेका निर्णय संघ में हुआ था. संघकी नीतिके अनुसार डॉ. हेडगेवारजीने व्यक्तिगत तौर पर अन्य स्वयंसेवकोंके साथ इस सत्याग्रहमें भाग लेने का निर्णय लिया. और संघ कार्य अविरत चलता रहे इस हेतु उनहोंने सरसंघचालक पदका दायित्व उनके पुराने मित्र डॉ. परांजपेको सोंप कर बाबासाहब आपटे और बापुराव भेदीको शाखाओंके प्रवासकी जिम्मेदारी दी. इस सत्याग्रहमें उनके साथ प्रारंभमें २१ जुलाई को ३ – ४ हजार लोग थे. वर्धा, यवतमाल होकर पुसद पहुँचते पहुँचते सत्याग्रह स्थल पर १० हजार लोग इकठ्ठा हुए. इस सत्याग्रहमें उन्हें ९ मास का कारावास हुआ. वहांसे छूटनेके पश्चात् सरसंघचालकका दायित्व पुनः स्वीकार कर वे फिरसे संघकार्यमें जुट गए.

१९३८ में भागानगरमें (हैदराबाद) निजामके द्वारा हिन्दुओं पर होनेवाले अत्याचारके खिलाफ ‘भागानगर निःशस्त्र प्रतिकार मंडल’ के नामसे सत्याग्रहका आवाहन हिन्दु महासभा और आर्य समाजके तत्वावधानमें हुआ उसमे सहभागी होनेके लिए जिन स्वयंसेवकोंने अनुमति मांगी उन्हें डॉक्टरजीने सहर्ष अनुमति दी. केवल संघका प्रमुख दायित्व जिन पर था उन्हें केवल संगठनके कार्यकी दृष्टीसे बाहर ही रहनेके लिए कहा था. उन्होंने स्पष्ट कहा था कि सत्याग्रहमें जिन्हें भाग लेना है वे व्यक्तिके नाते अवश्य भाग लें सकते है. भागनगर सत्याग्रहके संचालकोंके द्वारा प्रसिद्धि पत्रकमें ‘संघ’ ने सहभाग लिया ऐसा बार बार आने पर डॉक्टरजीने उन्हें पत्र लिखकर संघका उल्लेख ना करनेकी सूचना उनके प्रसिद्धि विभागको देनेको कहा था.

राजकीय आन्दोलनका तात्कालिक, नैमित्तिक व संघर्षमय स्वरुप और संघका नित्य, अविरत(अखंड) व रचनात्मक स्वरुप इन दोनोंकी भिन्नताको समझ कर आन्दोलन भी यशस्वी हो परन्तु उस समय भी चिरंतन संघकार्य अबाधित रहे इस दूरदृष्टीसे विचारपूर्वक यह नीति डॉक्टरजीने अपनाई थी. इसीलिए जंगल सत्याग्रहके समय भी सरसंघचालकका दायित्व डॉ. परांजपेको सोंप कर व्यक्तिके नाते अनेक स्वयंसेवकोंके साथ वे सत्याग्रहमें सह्भागी हुए थे.

८ अगस्त १९४२ को मुंबईके गोवलिया टैंक मैदान पर कोंग्रेस अधिवेशनमें महात्मा गांधीजीने ‘अंग्रेजो! चले जाओ’ यह ऐतिहासिक घोषणा की. दुसरे दिनसे ही देशमें आन्दोलनने गति पकड़ी और जगह जगह आन्दोलन के नेताओंकी गिरफ्तारी शुरू हुई.

विदर्भमें बावली (अमरावती), आष्टी (वर्धा) और चिमूर (चंद्रपुर) में विशेष आन्दोलन हुए. चिमूरके समाचार बर्लिन रेडिओ पर भी प्रसारित हुए. यहाँके आन्दोलनका नेतृत्व कोंगेसके उद्धवराव कोरेकर और संघके अधिकारी दादा नाईक, बाबुराव बेगडे, अण्णाजी सिरास इन्होंने किया. इस आन्दोलमें अंग्रेज की गोलीसे एकमात्र मृत्यु बालाजी रायपुरकर इस संघ स्वयंसेवककी हुई. कोंग्रेस, श्री तुकडोजी महाराज द्वारा स्थापित श्री गुरुदेव सेवा मंडल एवं संघ स्वयंसेवकोंने मिलकर १९४३ का चिमूरका आन्दोलन और सत्याग्रह किया. इस संघर्ष में १२५ सत्याग्रहियोंपर मुकदमा चला और असंख्य स्वयंसेवकोंको कारावासमें रखा गया.

भारतभर चले इस आन्दोलनमें स्थान स्थान पर संघके वरिष्ठ कार्यकर्ता, प्रचारक स्वयंप्रेरणासे कूद पड़े. अपने जिन कार्यकर्ताओंने स्थान स्थान पर अन्य स्वयंसेवकोंको साथ ले कर इस आन्दोलन में भाग लिया उनके कुछ नाम ऐसे है.

राजस्थान – श्री जयदेवजी पाठक, प्रचारक – जो बाद में विद्याभारतीमें सक्रीय रहें.
आर्वी – विदर्भ – डॉ. अण्णासाहब देशपांडे.
जशपुर(छत्तीसगढ़) – श्री रमाकांत केशव (बालासाहब) देशपांडे – बादमें वनवासी कल्याणआश्रम की स्थापना.
दिल्ली – श्री वसंतराव ओक - बादमें दिल्ली प्रान्त के प्रचारक.
पटना – बिहार के प्रसिद्ध वकील श्री कृष्णवल्लभप्रसाद नारायण सिंह ( बबुआजी) - बाद में बिहार के संघचालक
दिल्ली - श्री चंद्रकांत भरद्वाज, जिनके पैरमें गोली लगी, जो निकली नहीं जा सकी, बाद में प्रसिद्ध कवी. अनेक संघगीतोंके रचयिता.
उज्जैन(मध्य प्रदेश) – श्री दत्तात्रय गंगाधर (भय्याजी) कस्तुरे.- बादमें संघ प्रचारक.
पूर्वी उत्तर प्रदेश – माधवराव देवडे – बादमें प्रान्त प्रचारक.

ऐसे असंख्य नाम और हो सकते है. उस समय इन सारी बातोंका दस्तावेजीकरण (रिकार्ड) करनेकी कल्पना भी आना संभव नहीं था.
डॉक्टर हेडगेवारजीके जीवनका अध्ययन करने पर ध्यानमें आता है कि बाल्य कालसे आखिरी साँस तक उनका जीवन केवल और केवल अपना देश और उसकी स्वतंत्रता इसके लिए ही था. उस हेतु उन्होंने समाजको दोषमुक्त, गुणवान एवं राष्ट्रीय विचारोंसे जाग्रत कर उसे संगठित करनेका मार्ग चुना था. संघकी प्रतिज्ञामें भी १९४७ तक संघकार्यका उद्देश्य ‘हिन्दू राष्ट्रको स्वतंत्र करनेके लिए’ ऐसा ही राहता था.


हेडगेवार दृष्टी – संघ दृष्टी.

भारतीय राष्ट्र जीवनमें ‘एक्सट्रीम पोजीशंस’ लेने की स्थिति दिखती थी. डॉक्टरजीके समय भी समाज कोंग्रेस – क्रांतिकारी, तिलक – गाँधी, हिंसा – अहिंसा, हिन्दू महासभा – कोंग्रेस ऐसे द्वन्द्वोंमें उलझा हुआ था. एक दुसरे पर मात करनेका वातावरण बना था. कई बार तो आपसी भेदके चलते ऐसा सिरेका विरोध करने लगते थे कि साम्राज्यवादके विरोधमें अंग्रेजोंसे लड़नेके बदले आपसमें ही भिड़ते दिखते थे. १९२१ में मध्य प्रान्त कोंग्रेसकी प्रांतीय बैठकमें लोकनायक अणे की अध्यक्षतामें क्रन्तिकरियोंकी निंदाका प्रस्ताव आने वाला था. डॉक्टर हेडगेवारजीने उन्हें समझाया कि क्रांतिकारियोंके मार्ग पर आपका विश्वास भले ही ना हो पर उनकी देशभक्ति पर शंका नहीं करनी चाहिए. ऐसी स्थितिमें डॉक्टरजीका जीवन राजनितिक दृष्टिकोण, दर्शन एवं नीतियाँ, तिलक – गाँधी, हिंसा – अहिंसा, कोंग्रेस – क्रन्तिकारी, इन संकीर्ण विकल्पोंके आधार पर निर्धारित नहीं था. व्यक्ति अथवा विशिष्ट मार्गसे कहीं अधिक महत्वपूर्ण स्वातंत्र्य प्राप्तिका मूल ध्येय था.

भारतको केवल राजनैतिक इकाई माननेवाला एक वर्ग हर प्रकारके श्रेयको अपनेही पल्लेमें डालने पर उतारू दिखता है. स्वतंत्रता प्राप्ति के लये दूसरोंने कुछ नहीं किया, साराका सारा श्रेय हमरा ही ऐसा (‘प्रपोगंडा’) एक तरफ़ा प्रचार करने पर वह आमादा दिखता है. यह उचित नहीं है. सशस्त्र क्रांति से ले कर अहिंसक सत्याग्रह, सेनामे विद्रोह, आझाद हिन्द फ़ौज इन सभीके प्रयासोंका एकत्र परिणाम स्वतंत्रता प्राप्तिमें हुआ है. द्वितीय महायुद्ध में जीतने के बाद भी इंग्लॅण्ड की ख़राब हालत और अपने सभी उपनिवेशों पर शासन करने की असमर्थता और अनिच्छा का भी योगदान इसमें नकारा नहीं जा सकता. स्वतंत्रता के लिए भारत के समान दीर्घ संघर्ष नहीं हुआ ऐसे उपनिवेशोंको भी अंग्रेजोंने क्रमशः स्वतंत्र किया है.

१९४२ का सत्याग्रह, महात्मा गांधीजी द्वारा किया हुआ आखिरी सत्याग्रह था और उसके पश्चात् १९४७ में देश स्वतंत्र हुआ यह बात सत्य है. परन्तु इसलिए स्वतंत्रता केवल १९४२ के आन्दोलन के कारण ही मिली, और जो लोग उस आन्दोलन में कारावास में रहे उनके ही प्रयाससे भारत स्वतंत्र हुआ यह कहना हास्यास्पद, अनुचित और असत्य है.

एक रूपक कथा है. एक किसानको बहुत भूख लगी. पत्नी परोस रही थी और ये खाए जा रहा था. पर तृप्ति नहीं हो रही थी. दस रोटी खानेके बाद जब ग्यारहवी रोटी उसने खायी तो उसे तृप्तिकी अनुभूति हुई. उससे नाराज हो कर वह पत्नीको डांटने लगा कि यह ग्यारहवी रोटी जिससे तृप्ति हुई उसने पहले क्यों नहीं दी. इतनी सारी रोटियां खाने की महेनत बच जाती और तृप्ति जल्दी अनुभूत होती. यह कहना हास्यास्पद ही है.

इसी तरह यह कहना कि केवल १९४२ के आन्दोलनके कारण ही भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई, यह हास्यास्पद बात है. इसके बारेमे अन्य इतिहासकार क्या कहते है यह जरा देखिये-

British PM Clement Atlee said that Gandhi’s non – violence movement had next to zero effect on the British, when granting independence to India. Former acting Governor of West Bengal P. M. Chakraborty (C.J. of Kolkata High court) wrote :

When I was the acting Governor, Lord Atlee, who had given no independence by withdrawing the British rule from India, spent two days in the Governor’s palace at Kolkata during his tour of India. At that time I had a prolonged discussion with him regarding the real factors that had led the British to quit India. My direct question to him was that since Gandhi’s “Quit India” movement had tapered off quite some time ago and in 1947 no such new compelling situation had arisen that would necessitate a hasty British departure, why did they have to leave? In his reply Atlee cites several reasons, the principle among them being the erosion of loyalty to the British Crown among the Indian army and navy personnel as a result of the military activities of Netaji (Subhashchandra Bose). Toward the end of our discussion I asked Atlee what was the extent of Gandhiji’s influence upon the British decision to quit India. Hearing this question, Atlee’s lips became twisted in a sarcastic smile as he slowly chewed out the word, “ m-i-n-i-m-a-l”.

[Ranjan Borra, “ Subhashchandra Bose, The Indian National Army, The War of India’s liberation”. Journal of Historical review, Vol 20,(2001), No 1 ref. 46]

Netaji described in his book ‘The India’s Struggle’ –
“…… that there was a deplorable lack of clarity in the plan which Mahatma had formulated and that he himself had no clear idea of the successive stages of the campaign which would bring India to her cherished goal of freedom”.

Ramesh Chandra Mujumdar:
“…. It was the cumulative effect of all the three that brought freedom to India. In particular, the revelations made by the INA trial, and the reaction it produced in India, made it quite plain to the British, already exhausted by the war, that they could no longer depend upon the loyalty of the sepoys for maintaining their authority in India. This had probably the greatest influence upon their final decision to quit India.”

(Mujumdar, Ramesh Chandra, - Three phases of India’s Struggle for Freedom, BVN Bombay India 1967. PP 58-59.)


यह सारा पढने के बाद, यह सोचना कि १९४२ के ‘चले जाओ’ आन्दोलन का स्वतंत्रता प्राप्ति में कुछ भी योगदान नहीं यह भी योग्य नहीं है. जेलमे जाना यही देशभक्त होनेका है परिचायक है ऐसा भी मानना ठीक नहीं है. स्वतंत्रता आन्दोलनमें सक्रीय लोगोंमें, आन्दोलन कर कारावास भोगने वाले, उनके परिवारों की देखभाल करने वाले, भूमिगत आन्दोलन करने वाले, ऐसे भूमिगत आन्दोलनकारियोंको अपने घरोंमें पनाह देनेवाले, विद्यालयोंके द्वारा विद्यार्थियोंमें देशभक्ति का भाव जगाने वाले, स्वदेशी के द्वारा अंग्रेजों की आर्थिक नाकाबंदी करने वाले, स्वदेशी उद्योग के माध्यम से सशक्त भारतीय पर्याय देनेवाले, लोककला, पत्रकारिता, कथा उपन्यास, नाटकादि के माध्यम से राष्ट्र जागरण करनेवाले सभी का योगदान महत्त्वका है, उसकी दखल लेनी चाहिए.

भारत केवल एक राजनैतिक इकाई नहीं है. यह तो हजारों वर्षोंके चिंतनके आधार पर निर्मित एक शाश्वत, समग्र, एकात्म जीवनदृष्टी पर आधारित एक सांस्कृतिक इकाई है. यह जीवनदृष्टी, संस्कृति ही आसेतुहिमाचल इस वैविध्यपूर्ण समाजको एक सूत्र में गुंथकर एक विशिष्ट पहचान देती है. इसलिए, भारतके इतिहासमें जब जब सफल राजनैतिक परिवर्तन हुआ है उसके पहले और उसके साथ साथ एक सांस्कृतिक जागरण भारतकी अध्यात्मिक शक्तिके द्वारा हुआ दिखता है. परिस्थिती जितनी अधिक बिकट होती दिखती है उतनीही ताकतके साथ यह अध्यात्मिक शक्ति भी भारतमे सक्रीय हुई है ऐसा दिखता है. इसीलिए मुग़लोंके शसनके साथ १२ वी शताब्दी से १६ वी शताब्दी तक सारे भारतमें एकसाथ भक्ति आन्दोलन प्रस्फुटित हुआ दिखता है. उत्तरमें स्वामी रामानान्द से लेकर सुदूर दक्षिणमें रामानुजाचार्य तक प्रत्येक प्रदेशमें साधू, संत, संन्यासी ऐसे अध्यात्मिक महापुरुषोंकी एक अखंड परंपरा चल पड़ी है ऐसा दिखता है. अंग्रेजोंकी गुलामीके साथ साथ स्वामी दयानंद सरस्वती, श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद जैसे अध्यात्मिक नेतृत्वकी परंपरा चल पड़ी दिखती है. भारतके इतिहासमें सांस्कृतिक जागरणके बिना कोई भी राजनैतिक परिवर्तन सफल और स्थायी नहीं हुआ है. इसलिए सांस्कृतिक जागरणके कार्यका मूल्याङ्कन राजनीतीके मापदंडसे नहीं होना चाहिए. मौन, शांत रीतिसे सतत चलने वाला अध्यात्मिक, सांस्कृतिक जागरणका महत्त्व भारत जैसे देशके लिए अधिक मायने रखता है यह अधोरेखित होना चाहिए.